जानिए भूमि अधिग्रहण से जुड़े सुप्रीम कोर्ट के कुछ एेतिहासिक फैसले
ढांचा विकास, भूमि अधिग्रहण और इससे जुड़े अन्य मुद्दों के बारे में बात करना बहुत अहम पहलू होता है। इस मुद्दे की जटिलता के कारण कई मामले पैदा हो रहे हैं। आइए आपको भूमि अधिग्रहण से जुड़े अदालतों के कुछ एेतिहासिक फैसलों के बारे में बताते हैं। ये केस स्टडीज घर ग्राहकों और निवेशकों को भूमि अधिग्रहण से जुड़े मामलों में कानून की समझ को बेहतर करेंगी।
क्या अथॉरिटीज आपको मुआवजा राशि के लिए इधर-उधर दौड़ा रही हैं?
सुप्रीम कोर्ट क्या कहता है: यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भूमि मालिक का असली क्लेम भी राज्य सरकार ने इतने लंबे समय तक नहीं निपटाया है।
बुनियादी ढांचे के विकास के लिए राज्य सरकारें अकसर जनता से जमीन खरीदती हैं। ज्यादातर मामलों में बखेड़ा मुआवजा राशि पर खड़ा होता है। उस पर अथॉरिटीज जमीन मालिकों को कोर्ट में घसीट सकती हैं। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सख्त रुख अपनाया है, खासकर अगर राशि कम है और प्रक्रिया में काफी वक्त लिया गया है तो।
जानिए क्या हुआ था: 1987 के भूमि अधिग्रहण मामले में आंध्र प्रदेश सरकार ने भूमि मालिक को 50 हजार के क्लेम के लिए 20 साल तक इस कोर्ट से उस कोर्ट तक दौड़ाया था। इस दौरान दावेदार का निधन भी हो गया। जब राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में न्याय की गुहार लगाई तो दावेदार के वारिस कोर्ट में पेश नहीं हो पाए। मई 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने भूमि अधिग्रहण अफसर बनाम रवि संतोष मामले में फैसला देते हुए राज्य द्वारा "कानूनी प्रक्रिया के दुरुपयोग" की आलोचना की और राशि के निपटारे का आदेश दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्य सरकार बेकार में ही इस मामले को अदालत में लेकर आई है, जिसके न तो तथ्य में और न ही कानून में किसी तरह का तर्क शामिल है। इसमें न तो किसी तरह का सार्वनजिक महत्व शामिल है और न ही बहुत ज्यादा पैसा। इसमें जो चीज शामिल है, वह है ब्याज के भुगतान की गणना। इसलिए राज्य सरकार द्वारा यह प्रक्रिया का दुरुपयोग है, जिसे हम कभी मंजूर नहीं कर सकते। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ''यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि इतने लंबे समय बाद भी भूमि मालिक के क्लेम का राज्य सरकार ने निपटारा नहीं किया''।
अगर जमीन आपकी सहमति के बिना हासिल की गई है तो क्या आपको कैपिटल गेन टैक्स भुगतान करना होगा?
सुप्रीम कोर्ट क्या कहता है: अगर कोई मकानमालिक मुकदमेबाजी से बचने के लिए सरकार के साथ दिक्कत पैदा करता है तो लेनदेन बिक्री नहीं बल्कि अनिवार्य अधिग्रहण है और कैपिटल गेन टैक्स (पूंजीगत लाभ कर) में छूट दी जानी चाहिए।
एेसे कई मामले हैं, जहां भूमि मालिकों के पास प्रोजेक्ट डिवेलपमेंट्स के लिए प्रशासन को भूमि देने के अलावा कोई चारा नहीं बचता। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश में कहा कि भूमि मालिक को प्रशासन की ओर से जो मुआवजा मिला है, उस पर वह कैपिटल गेन टैक्स का भुगतान करने के लिए बाध्य नहीं है।
जानिए क्या हुआ: बालकृष्णन बनाम यूनियन अॉफ इंडिया मामले में राज्य सरकार ने साल 2006 में दक्षिण केरल के टेक्नो पार्क का विस्तार करने के लिए 27 एकड़ की भूमि अधिग्रहित की थी। मुआवजा राशि से नाखुश भूमि मालिकों ने कानूनी लड़ाई लड़ने पर विचार किया। लेकिन मुकदमेबाजी से बचने के लिए बाद में वे राज्य सरकार द्वारा तय की गई राशि पर भूमि बेचने को तैयार हो गए।
समझौते को अंतिम रूप मिलने के बाद राज्य के राजस्व विभाग ने भूमि मालिकों से राशि पर कैपिटल गेन टैक्स की मांग की। राजस्व विभाग ने कहा कि लेनदेन बिक्री थी और इनकम टैक्स एक्ट के सेक्शन 10 (37) के तहत अनिवार्य अधिग्रहण पर छूट नहीं दी गई थी। मामला हाई कोर्ट पहुंचा। हालांकि बाद में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भूमि मालिकों ने सरकार के सामने दिक्कतें सिर्फ मुकदमेबाजी से बचने के लिए पैदा कीं। इसी के संदर्भ में लेनदेन 'बिक्री' नहीं, बल्कि अनिवार्य अधिग्रहण था, जिसे कैपिटल गेन टैक्स में छूट मिलनी चाहिए।
आपकी जमीन राज्य के पुराने कानूनों के प्रावधानों के तहत अधिग्रहित की गई है। क्या आप नए केंद्रीय कानून के प्रावधानों के तहत अधिग्रहण को चुनौती दे सकते हैं?
सुप्रीम कोर्ट क्या कहता है: राज्य विकास अधिनियम के तहत भूमि अधिग्रहण सिर्फ इसलिए रद्द नहीं होगा, क्योंकि उसने केंद्रीय कानून की कार्यप्रणाली को फॉलो नहीं किया है। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल आदेश में कहा था कि राज्य के कानून के तहत एक बार अगर कानूनी कार्यवाही शुरू की जाती है तो 2014 में लागू हुआ भूमि अधिग्रहण पुनर्वास और पुनर्वास अधिनियम लागू नहीं होगा।
क्या हुआ था: विशेष भूमि अधिग्रहण अधिकारी बनाम अनुसूया बाई मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक हाई कोर्ट के फैसले को पलट दिया। हाई कोर्ट ने कर्नाटक इंडस्ट्रियल एरिया डिवेलपमेंट एक्ट के तहत भूमि के अधिग्रहण को खारिज कर दिया था, जिसके आधार पर निर्धारित अवधि के भीतर मुआवजा नहीं दिया गया था। इस मामले में पुराने भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत समय सीमा तय की गई थी। मुद्दा यह था कि क्या पुराने नियम लागू होने चाहिए, जबकि साल 2014 में नए कानून भूमि अधिग्रहण पुनर्वास और पुनर्वास अधिनियम के ''सही मुआवजे और पारदर्शिता के अधिकार'' ने उसकी जगह ले ली थी। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश में कहा कि कर्नाटक इंडस्ट्रियल एरिया डिवेलपमेंट एक्ट के तहत भूमि अधिग्रहण सिर्फ इसलिए रद्द नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसमें केंद्रीय कानून की कार्यप्रणाली फॉलो नहीं की।
क्या अथॉरिटीज जरूरत से ज्यादा वक्त लगाती हैं?
हाई कोर्ट ने क्या कहा: अगर किसी तरह के मुआवजे का भुगतान नहीं किया गया तो अधिग्रहण बुरा, गैरकानूनी और बिना औचित्य के है।
कलकत्ता हाई कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला देते हुए पश्चिम बंगाल सरकार और उसके भूमि अधिग्रहण कलेक्टर को पिछले साल असंतुष्ट पक्ष को क्षतिपूर्ति और व्यवसाय शुल्क का भुगतान करने को कहा था, जिनकी जमीन पर राज्य सरकार साल 1998 से कब्जा करके बैठी थी।
क्या हुआ था: 1973 में राज्य सरकार ने राजधानी के केंद्रीय इलाके में शुगर इंडस्ट्रीज डिवेलपमेंट कॉरपोरेशन का दफ्तर बनाने के लिए पुनालूर पेपर मिल्स के परिसर का अधिग्रहण किया। इस मामले में नोटिफिकेशन 1998 में अमान्य हो गया। दूसरा नोटिफिकेशन 2000 में आया। तब तक परिसर को अधिग्रहित कर लिया गया और कॉरपोरेशन ने प्रॉपर्टी पर कब्जा जारी रखा। पुनालूर पेपर मिल्स ने इस अधिग्रहण को चुनौती दी, जबकि राज्य सरकार न्यायपालिका का रुख करने पर आपत्ति जताई।